72 साल की बीरुबाला राभा ने डायन कुप्रथा के खिलाफ बहिष्कार झेल उठाई आवाज, आज सामाजिक कार्यों की बदौलत पद्मश्री सम्मान से हुईं सम्मानित
डायन, चुड़ैल या जादूगरनी जैसे अनगिनत नामों से आज भी महिलाओं को प्रताड़िता किया जाता है। कभी-कभी औरतें खुद ही अपनी सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं क्योंकि कई महिलाएं इस तरह की कुप्रथाओं का समर्थन करती हैं। असम में आज से एक दशक पहले तक महिलाओं को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता था क्योंकि लोगों को लगता था कि वो डायन है। लेकिन आज इन मामलों में कई कमी आई हैं और इसका सीधा श्रेय जाता है 72 साल की बीरुबाला राभा को|
बीरुबाला महिलाओं को डायन समझने वाली कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और आज वो पिछले 15 साल से भी अधिक समय से महिलाओं के लिए लड़ रही हैं। इस संघर्ष में बीरुबाला राभा को समाज का बहिष्कार भी सहना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। आज उनकी इस सामाज सुधार कार्यों की बदौलत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया है। लेकिन बीरुबाला राभा का एक छोटे से गांव से उभर कर समाज को जागरूक करने तक का सफर बिल्कुल भी आसान नहीं था। इसके लिए उन्हें काफी कठिनाइयों का समाना करना पड़ा। आइए जानते हैं उनके संघर्ष और समाज को प्रेरित करने की प्रेरणादायक कहानी।
इस घटना के बाद मिली समाज को जागृत की करने की प्रेरणा
बिरुबाला ने अपने जीवन भर कई तरह की बाधाओं का सामना किया है। वह जब 6 साल की थीं तभी उनके पिता की मौत हो गई थी। पिता की मौत के चलते उन्हें अपना स्कूल छोड़ना पड़ा और अपनी मां के साथ कामों में मदद कराने लगी। उनकी मां खेतों में जाकर मजदूरी किया करती थी। 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई और उनके तीन बच्चे हुए, उन्हीं की देखरेख में उनका जीवन बीतने लगा। आसपास के लोग अक्सर गांव में डायन होने और गांव से उसे निकालने के किस्से सुनाया करते थे। नब्बे के दशक में उनके बड़े बेटे को टाइफाइड हो गया था। चूंकि गांव में चिकित्सा सुविधाओं का आभाव था इसलिए वह अपने बेटे को लेकर एक वैद्य के पास गई। वैद्य ने बताया कि उनके बेटे पर एक डायन का साया है और वह उसके बच्चे की मां बनने वाली है और जैसे ही उस बच्चे का जन्म होगा, उनका बेटा मर जाएगा। यह सुनकर राभा बहुत परेशान हो गई। लेकिन कई महीने बीत जाने के बाद भी उनके बेटे को कुछ नहीं हुआ। तब उन्हें लगा कि लोग जादू-टोना के नाम पर आदिवासी महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित कर रहें हैं. उन्होंने तभी से अंधविश्वास व डायन कुप्रथा के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया।
समाज को जागरूक करने का किया काम
इसी बीच उनके गांव में एक महिला को लोगों ने डायन बताकर प्रताड़ित किया। इसका उन्होंने विरोध किया। तब उन्होंने अपने गांव की कुछ महिलाओं के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। काम करने पर पता चला कि आस-पास के गांवों में भी कुछ महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित किया गया है। उन्हें निर्वस्त्र कर पीटा गया। तब उन्होंने गांव में जाकर उन महिलाओं के बारे में पता लगाया। पता चला कि उन महिलाओं को गांव से बाहार निकाले जाने की तैयारी हो रही है। बीरुबाला राभा ने कसम खा ली थी कि वो समाज को डायन कुप्रथा के खिलाफ जागरूक करेंगी। तब उन्होंने स्थानीय नेताओं से मुलाकात की और उन्हें अपने बेटे के बारे में बताया। उन्होंने उन लोगों को बताया कि दुनिया में डायन जैसा कुछ नहीं है यह महिलाओं को प्रताड़ित करने का बस एक जरिया है।
समाज के बहिष्कार के बाद भी नहीं मानी हार
बीरुबाला राभा को समाज को जागरूक करने की दिशा में बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा। लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से वो कई गैर-सरकारी संगठनों से मिली। जिसके बाद उन्होंने डायन कुप्रथा के खिलाफ अपनी आवाज को और बुलंद किया। लेकिन लोगों को उनका ऐसा करना पसंद नहीं आया। उन्होंने बीरुबाला को तीन साल के लिए समाज से बहिष्कृत कर दिया। लेकिन बीरूबला ने हार नहीं मानी और कुछ वर्ष बाद उन्होंने व्यापक स्तर पर असम के जनजातीय ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास के खिलाफ अभियान शुरू किया। वर्ष 2011 में उन्होंने एक समान विचार रखने वाले कुछ साथियों के साथ मिलकर 'मिशन बिरुबाला' संस्था शुरू की. इस संस्था के माध्यम से उन्होंने हर तरह के जादू-टोनों के खिलाफ सचेत रूप से काम करना शुरू कर दिया और ऐसी मानसिकता से पीड़ित अनगिनत पुरुष और महिलाओं को इससे छुटकारा दिलाया। असम सरकार ने वर्ष 2015 में असम डायन प्रताड़ना (प्रतिबंध, रोकथाम और संरक्षण) कानून बनाया। जिसके बाद महिलाओं को डायन समझे जाने में कमी आई।
कई महिलाओं को पीड़ित होने से बचाया
बीरुबाला राभा ने अपने कार्यों के जरिए कई महिलाओं को डायन कुप्रथा का शिकार होने से बचाया। लेकिन दुख की बात तो यह है कि उनके इस कार्य में कई अन्य महिलाओं ने अवरोध उत्पन्न किया। कई महिलाएं उनके इस कार्य में बाधा उत्पन्न करने लग गई। लेकिन बीरुबाला राभा ने अपने कदम पीछे नहीं किए। उन्होंने लोगों को बताया कि बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाओ, न कि किसी बाबाओं केव पास। धीरे-धीरे लोगों को उनकी बात समझने आने लगी। जिससे कई महिलाएं इस कुप्रथा का शिकार होने से बच गईं
सरकार ने किया पद्मश्री सम्मान से सम्मानित
72 साल की बीरुबाला राभा ने डायन कुप्रथा के खिलाफ बहिष्कार झेल उठाई आवाज, आज सामाजिक कार्यों की बदौलत पद्मश्री सम्मान से हुईं सम्मानितडायन, चुड़ैल या जादूगरनी जैसे अनगिनत नामों से आज भी महिलाओं को प्रताड़िता किया जाता है। कभी-कभी औरतें खुद ही अपनी सबसे बड़ी दुश्मन होती हैं क्योंकि कई महिलाएं इस तरह की कुप्रथाओं का समर्थन करती हैं। असम में आज से एक दशक पहले तक महिलाओं को सिर्फ इसलिए मार दिया जाता था क्योंकि लोगों को लगता था कि वो डायन है। लेकिन आज इन मामलों में कई कमी आई हैं और इसका सीधा श्रेय जाता है 72 साल की बीरुबाला राभा को, बीरुबाला महिलाओं को डायन समझने वाली कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाई और आज वो पिछले 15 साल से भी अधिक समय से महिलाओं के लिए लड़ रही हैं। इस संघर्ष में बीरुबाला राभा को समाज का बहिष्कार भी सहना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
आज उनकी इस सामाज सुधार कार्यों की बदौलत सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया है। लेकिन बीरुबाला राभा का एक छोटे से गांव से उभर कर समाज को जागरूक करने तक का सफर बिल्कुल भी आसान नहीं था। इसके लिए उन्हें काफी कठिनाइयों का समाना करना पड़ा। आइए जानते हैं उनके संघर्ष और समाज को प्रेरित करने की प्रेरणादायक कहानी।इस घटना के बाद मिली समाज को जागृत की करने की प्रेरणाबिरुबाला ने अपने जीवन भर कई तरह की बाधाओं का सामना किया है। वह जब 6 साल की थीं तभी उनके पिता की मौत हो गई थी। पिता की मौत के चलते उन्हें अपना स्कूल छोड़ना पड़ा और अपनी मां के साथ कामों में मदद कराने लगी।
उनकी मां खेतों में जाकर मजदूरी किया करती थी। 15 साल की उम्र में उनकी शादी हो गई और उनके तीन बच्चे हुए, उन्हीं की देखरेख में उनका जीवन बीतने लगा। आसपास के लोग अक्सर गांव में डायन होने और गांव से उसे निकालने के किस्से सुनाया करते थे। नब्बे के दशक में उनके बड़े बेटे को टाइफाइड हो गया था। चूंकि गांव में चिकित्सा सुविधाओं का आभाव था इसलिए वह अपने बेटे को लेकर एक वैद्य के पास गई। वैद्य ने बताया कि उनके बेटे पर एक डायन का साया है और वह उसके बच्चे की मां बनने वाली है और जैसे ही उस बच्चे का जन्म होगा, उनका बेटा मर जाएगा। यह सुनकर राभा बहुत परेशान हो गई। लेकिन कई महीने बीत जाने के बाद भी उनके बेटे को कुछ नहीं हुआ। तब उन्हें लगा कि लोग जादू-टोना के नाम पर आदिवासी महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित कर रहें हैं. उन्होंने तभी से अंधविश्वास व डायन कुप्रथा के खिलाफ अभियान शुरू कर दिया।
समाज को जागरूक करने का किया कामइसी बीच उनके गांव में एक महिला को लोगों ने डायन बताकर प्रताड़ित किया। इसका उन्होंने विरोध किया। तब उन्होंने अपने गांव की कुछ महिलाओं के साथ मिलकर काम करना शुरू किया। काम करने पर पता चला कि आस-पास के गांवों में भी कुछ महिलाओं को डायन बताकर प्रताड़ित किया गया है। उन्हें निर्वस्त्र कर पीटा गया। तब उन्होंने गांव में जाकर उन महिलाओं के बारे में पता लगाया। पता चला कि उन महिलाओं को गांव से बाहार निकाले जाने की तैयारी हो रही है। बीरुबाला राभा ने कसम खा ली थी कि वो समाज को डायन कुप्रथा के खिलाफ जागरूक करेंगी। तब उन्होंने स्थानीय नेताओं से मुलाकात की और उन्हें अपने बेटे के बारे में बताया। उन्होंने उन लोगों को बताया कि दुनिया में डायन जैसा कुछ नहीं है यह महिलाओं को प्रताड़ित करने का बस एक जरिया है।
समाज के बहिष्कार के बाद भी नहीं मानी हारबीरुबाला राभा को समाज को जागरूक करने की दिशा में बहिष्कार का सामना भी करना पड़ा। लोगों को जागरूक करने के उद्देश्य से वो कई गैर-सरकारी संगठनों से मिली। जिसके बाद उन्होंने डायन कुप्रथा के खिलाफ अपनी आवाज को और बुलंद किया। लेकिन लोगों को उनका ऐसा करना पसंद नहीं आया। उन्होंने बीरुबाला को तीन साल के लिए समाज से बहिष्कृत कर दिया। लेकिन बीरूबला ने हार नहीं मानी और कुछ वर्ष बाद उन्होंने व्यापक स्तर पर असम के जनजातीय ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वास के खिलाफ अभियान शुरू किया।
वर्ष 2011 में उन्होंने एक समान विचार रखने वाले कुछ साथियों के साथ मिलकर 'मिशन बिरुबाला' संस्था शुरू की. इस संस्था के माध्यम से उन्होंने हर तरह के जादू-टोनों के खिलाफ सचेत रूप से काम करना शुरू कर दिया और ऐसी मानसिकता से पीड़ित अनगिनत पुरुष और महिलाओं को इससे छुटकारा दिलाया। असम सरकार ने वर्ष 2015 में असम डायन प्रताड़ना (प्रतिबंध, रोकथाम और संरक्षण) कानून बनाया। जिसके बाद महिलाओं को डायन समझे जाने में कमी आई। कई महिलाओं को पीड़ित होने से बचायाबीरुबाला राभा ने अपने कार्यों के जरिए कई महिलाओं को डायन कुप्रथा का शिकार होने से बचाया। लेकिन दुख की बात तो यह है कि उनके इस कार्य में कई अन्य महिलाओं ने अवरोध उत्पन्न किया।
कई महिलाएं उनके इस कार्य में बाधा उत्पन्न करने लग गई। लेकिन बीरुबाला राभा ने अपने कदम पीछे नहीं किए। उन्होंने लोगों को बताया कि बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास जाओ, न कि किसी बाबाओं केव पास। धीरे-धीरे लोगों को उनकी बात समझने आने लगी। जिससे कई महिलाएं इस कुप्रथा का शिकार होने से बच गईंसरकार ने किया पद्मश्री सम्मान से सम्मानितबीरुबाला राभा के इस सामाजिक कार्यों को देखते हुए भारत सरकार ने साल 2021 में समाज सुधार के क्षेत्र में उन्हें पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया है।
आज अंधविश्वास फैलाने वाले लोग बीरुबाला से डरते हैं, क्योंकि उनके बुलाने पर पुलिस पहुंच जाती है। अब तक उन्होंने चालीस से अधिक ग्रामीणों की जान बचाई है। बीरुबाला राभा सही मायने में आज लाखों लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत है। उन्होंने अपने हौसले और लगन के दम पर समाज को जागरूक कर अपनी सफलता की कहानी लिखी है। बीरुबाला राभा जैसी महिलाओं की आज समाज को बहुत जरूरत है।