Shaheed Diwas 2021 : आज ही के दिन हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गए थे भारत मां के तीन सुपुत्र भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव
Shaheed Diwas
भारत की आजादी में कई वीरों ने अपनी जान की आहूति चढ़ाई है। कई बहादूरों के कारण आज हम स्वतंत्र बैठे हैं। भारत माता के इन लाडले सुपुत्रों में से एक थे भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव। भगत सिंह को आज देश का बच्चा-बच्चा जानता है। भगत सिंह के साथ राजगुरू और सुखदेव की बहादूरी का नाम सुनते ही हर किसी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। उनकी शहादत को देख हर किसी की आंखे नम हो जाती है। हर वर्ष 23 मार्च का दिन शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। दरअसल 23 मार्च ही वह दिन है, जिस दिन भारत मां की वीर सपूत भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। मात्र 23 साल की आयु में हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल जाने वाले भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के विचार आज भी लोगों के ज़हन में जिंदा है। आइए जानते हैं उनकी शहादत और उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातें।
शहीद भगत सिंह का जीवन
महान क्रान्तिकारी भगत सिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में एक सिख परिवार में हुआ था,। भगत सिंह का जब जन्म हुआ तो उनके पिता और चाचा जेल में थे। भगत सिंह का परिवार स्वतंत्रता संग्राम से सक्रिय रूप से जुड़ा हुआ था। परिवार के क्रांतिकारी होने का प्रभाव भगत सिंह पर बचपन से ही पड़ गया था। जिसके बाद रही सही कसर 1916 में लाहौर के डी ऐ वी विद्यालय में पढ़ते समय लाला लाजपत राय और रास बिहारी बोस ने पूरी कर दी। उन्होंने युवा भगत सिंह के जीवन पर गहरा असर डाला।
शहीद राजगुरु का जीवन
शहीद राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ा में हुआ था। शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे।
शहीद सुखदेव
शहीद सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब को लायलपुर में हुआ था, यह इलाका अब पाकिस्तान में है। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में आसपास ही रहते थे, इन दोनों के परिवारों में गहरी दोस्ती थी। दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र थे।
इन तीनों के जीवन में ऐसे आया बदलाव
भगत सिंह इन दो स्वतंत्रता सेनानियों लाजपत राय और रास बिहारी बोस के संपर्क में आए। उस समय पंजाब में जलिआंवाला बाग़ हत्याकांड को लेकर माहौल गर्म था। हत्याकांड के अगले ही दिन भगत सिंह जलिआंवाला बाग़ गए और उस जगह से मिट्टी इकठ्ठा कर उन्होंने इसे पूरी जिंदगी एक निशानी के रूप में रखा। यहीं से उन्होंने अंग्रेजो को भारत से निकाल फेंकने का संकल्प लिया। इसके बाद 1921 में जब महात्मा गांधी ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहयोग आंदोलन का आह्वान किया तब भगत सिंह अपनी पढाई छोड़ आंदोलन में सक्रिय हो गए। साल 1922 में जब महात्मा गांधी ने गोरखपुर के चौरी-चौरा में हुई हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन बंद कर दिया तब भगत सिंह बहुत निराश हुए। इसकी वजह से अंहिसा के प्रति उनका विश्वास कमजोर हो गया और उन्होंने उग्र होकर कार्य करने का फैसला किया। भगत सिंह ने लाहौर में लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया। यह विधालय क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था। यहीं से वह भगवती चरण वर्मा, सुखदेव और दूसरे क्रांतिकारियों के संपर्क में आये।
ब्रिटिश सरकार की नीतियों का किया था विरोध
ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को अधिकार छीनने के लिए दमनकारी नीतियों का प्रयोग किया। ‘भगत सिंह ने अपनी इच्छा से केन्द्रीय विधान सभा बम फेंकने की योजना बनाई। यहां पर एक अध्यादेश को पारित होने की बैठक लगाई जा रही थी। यह एक सावधानी पूर्वक रची गयी साजिश थी जिसका उद्देश्य किसी को मारना या चोट पहुँचाना नहीं था बल्कि सरकार का ध्यान आकर्षित करना था। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इस कार्य को अंजाम दिया। बम से किसी को भी नुकसान नहीं पहुचा। उन्होंने घटनास्थल से भागने के वजाए जानबूझ कर गिरफ़्तारी दे दी।
तय समय से 11 घंटे पहले ही दी फांसी
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने खुद जेल स्वीकार की थी। जेल में उन्होंने जेल अधिकारियों द्वारा साथी राजनैतिक कैदियों पर हो रहे अमानवीय व्यवहार के विरोध में भूख हड़ताल की। 7 अक्टूबर 1930 को भगत सिंह, सुख देव और राज गुरु को विशेष न्यायलय द्वारा मौत की सजा सुनाई गयी। भगत सिंह को 24 मार्च 1931 को फांसी देना तय किया गया था, लेकिन अंग्रेज इतना डरे हुए थे कि उन्हें 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को उन्हें 7:30 बजे फांसी पर चढ़ा दिया गया।
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